कुंभ मेला का धार्मिकऔर ऐतिहासिक महत्व
कुम्भ मेले का इतिहास बेहद प्राचीन है। यह महापर्व न केवल धार्मिक महत्व रखता है बल्कि भारत की सांस्कृतिक जड़ों का प्रतीक भी है। कुम्भ मेले का उल्लेख शिव पुराण, मत्स्य पुराण, पद्म पुराण और भविष्य पुराण जैसे ग्रंथों में मिलता है।
मान्यता है कि जब समुद्र मंथन के दौरान अमृत कलश निकला तो देवताओं और दैत्यों में संघर्ष हुआ। भगवान विष्णु ने मोहिनी अवतार लेकर अमृत का वितरण किया। इस दौरान अमृत कलश से चार स्थानों पर बूंदें गिरीं: प्रयागराज, हरिद्वार, उज्जैन और नासिक। इन स्थानों पर ही कुम्भ मेले का आयोजन होता है।
प्राचीन ग्रंथों में कुम्भ का उल्लेख
वाल्मीकि रामायण, महाभारत और श्रीरामचरितमानस जैसे ग्रंथों में भी कुम्भ मेले का उल्लेख है। रामायण के किष्किंधा कांड और अयोध्या कांड में संगम की पवित्रता का वर्णन है। वहीं, महाभारत के वन पर्व में इसे तीर्थराज की संज्ञा दी गई है।
त्रिवेणी संगम: तीन नदियों का संगम और आध्यात्मिक महत्व
प्रयागराज में गंगा, यमुना और अदृश्य सरस्वती नदियों का संगम होता है। इसे धर्मराज क्षेत्र कहा गया है। यहां स्नान करने से सभी पापों से मुक्ति मिलती है। पद्म पुराण में उल्लेख है कि संगम में स्नान से मोक्ष प्राप्त होता है और दान का अनंत फल मिलता है।
कुम्भ मेले का वैज्ञानिक और ज्योतिषीय आधार
कुम्भ मेला सिर्फ धार्मिक पर्व नहीं, बल्कि इसका ज्योतिषीय और वैज्ञानिक महत्व भी है। मकर संक्रांति के दौरान सूर्य, चंद्रमा और बृहस्पति की स्थिति विशेष रूप से संगम स्नान को फलदायी बनाती है।
आधुनिक युग में कुम्भ का महत्व
कुम्भ मेला भारतीय संस्कृति का विश्वभर में प्रसार करता है। युनेस्को ने इसे अमूर्त सांस्कृतिक धरोहर का दर्जा दिया है। लाखों श्रद्धालु यहां आकर अपने जीवन को आध्यात्मिक ऊर्जा से भर देते हैं।
कुम्भ मेले में प्रमुख आकर्षण
साधु-संतों का अखाड़ा प्रवेश
माघ स्नान और कल्पवास
अक्षयवट और भारद्वाज आश्रम का दर्शन
कुम्भ मेला सिर्फ एक धार्मिक आयोजन नहीं, बल्कि यह भारतीय संस्कृति और आस्था का उत्सव है। यह पर्व हमें अध्यात्म, धर्म और जीवन की अनमोल शिक्षाएं देता है। संगम स्नान से न केवल आत्मशुद्धि होती है, बल्कि यह जीवन में सकारात्मक ऊर्जा का संचार करता है।